कोई पूछे तो क्या बताएँ , समझाना चाहें भी तो क्या समझाएँ , अगर फिर भी ज़िद है तो इतना समझ लो कि , खुद को बंद कमरे में कैद करके घर से निकल आये , ग़मों की धुंद में ढूंढ़ने हम उड़ती हवा के साये। यह हवा अब जब भी चलती है तो ख़ाक उड़ा देती है , किसी किसान के खेत में बची राख उड़ा देती है , जो चुबती है आँखों में और निग़ाह ग़हरी कर देती है , जो चंद पलों में खुले गाँव की हवा शहरी कर देती है , जो पेड़ों को लहराती नहीं है , परिंदो को फड़फड़ाती नहीं है , जो सुन्न सी हो जाती है शमशान की तरह , छोटे बच्चों के संग मिल गाती नहीं है , अब कौन लोरी सुनाये , कौन चैन की नींद सुलाये , कौन ढूंढ के दिखाए इन नादान रूहों को , ग़मों की धुंद में उड़ती हवा के साये। पर यह हवा पहले कुछ ऐसी तो ना थी , मान लेती थी हर बात मेरी , यूँ मन-मर्ज़ी से बहती तो ना थी , पर फिर न-जाने कब यह शोर चला , एक न-शुक्रा सा दौर चला , मुँह मोड़ चला , मैं जितना इसकी और चला यह उतना पीछे छोड़ चला , एक गूँगी-बहरी सी सड़क थी एक काली-आंधी दौड़ चला , जो राह में आये वो दिखे ना , जो संग चले थे उनको राहों में ही छोड़ चला , अब कौन रास्त...
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