यह कुछ पंक्तियाँ पुराने पन्नों में से हैं , जो कि मेरे दिल के काफी करीब हैं। क़िताब तभी सम्पूर्ण होती है जब उसमें पहले से आखिरी तक सभी पन्नें मौज़ूद हों। मुझे क्या पता क्या तेरा है क्या मेरा , मैं हूँ सारे जहान का , मेरा सारा जहान है तेरा , अगर हो जाये मुझपे बस मेरा , तो बन के फ़िज़ा तेरी ज़ुल्फ़ों से खेलूँ , बन के ख़िज़ा तेरे ग़मों को झेलूँ , बन के पँछी जगह तेरे आँगन में लेलूँ , और जब भी करे तू नमाज़ , देखूँ तेरा रब सा सच्चा चेहरा , मुझे क्या पता क्या तेरा है क्या मेरा , मैं हूँ सारे जहान का , मेरा सारा जहान है तेरा । मैं हूँ इस जहान का जिस में खुद भी मैं शामिल नहीं , क्यूँकि जिसका तू ना हिस्सा वो मेरे लिए क़ामिल नहीं , और तू बने इस जहान का , ना यह तेरी हस्ती के काबिल नहीं , वैसे तो मैं इतना फ़ाज़िल नहीं , पर अगर हो जाये मुझपे हक़ मेरा , तो इस रूह का एक जहान बनादुँ , इस जिस्म का एक मकान बनादुँ , जहाँ भी रखे तू कदम , दिल का पायदान बिछादूँ , और महफूज़ रहे तू अपने इस जहान में , लगादूँ इन दो आँखों का पहरा , मुझे क्या पता क्या तेरा है क्या मेरा , मैं हूँ सारे जहान का , मेरा सा
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